रातभर


कई फूल बिखरे, कई मुरझाए 

तुम्हारी गलियों में भटकते थे साए 

कहीं से तो दिखते, कहीं से तो आते 

कभी तो निगाहों में, मन में समाते 


हर एक साँस पर जा अटकती थी ख्वाहिश 

हर एक आरज़ू की हुई आज़माइश 

तुम्हें कौन कहता, तुम्हें कौन रोके 

तमन्नाओं के उड़ने पे हम क्यों टोकें 


धुंए में खो गया हर वो सवाल खारा 

जवाबों की किल्लत में, किस्मत का मारा 

तुम्हें क्या थी दिक्कत, परेशां तो हम थे

तुम्हारे सपनों में बंधन कुछ कम थे 


चांदनी की चादर में हम तारे बुनते रहे

तुम्हारी ख़ामोशी को मन से सुनते रहे 

दिलों के सौदे में बस होते हैं घाटे

हमारी नींद लेकर तुमने दिए खर्राटे। 



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